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कैसी जोत जगी रे ! / राम सेंगर

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गाँव हमारा वृन्दावन था
इसी धीर नदिया के तीरे !
हैरत में हैं कहाँ गया वह
लेश नहीं पहचान बची रे !

उजड़ गए रोज़ी-रोटी में
खाक़नशीनों के सब टोले,
साठ-गाँठ सत्ता-पूँजी की
गाँठ पुरानी खुले न खोले !
शोषण और विलास ले गए
लूट समय के मोती-हीरे !

खेत हुए सब बाग़-बग़ीचे
बदल लिए संस्कृति ने चोले,
बन्द गली में खड़ा बिजूका
देख-देख मन हाले-डोले !
गति के कन्धे प्रगति चढ़ी है
भारी लीला प्रभू रची रे !

पुरे पोखरे ताल-तलैया
डम्पर दौड़ रहे चौखूँटा,
धूसर गर्द हवाओं में है
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा !
एकमेक सब डुँगरी-डबरे
नए सृजन की धूम मची रे!

तकनीकों-तजबीजों का मद
बना रहा है इसको अन्धा,
चाट रहा भाईचारे को
यह विकास का गोरखधन्धा !
घर-घर में सन्नाटा पसरा
जाने कैसी जोत जगी रे !

यारी,बेपरवाही, नेकी,
गप्प-सड़ाकों के ढब न्यारे,
उतर गए दृश्यावलियों के
रूप-रँग-रस प्यारे-प्यारे !
रँगत-रौनक-ख़ुशबू सारी
उड़ी हवा में धीरे-धीरे !

समय किसी के पास नहीं है
भरम सभी के अपने-अपने,
रातोंरात बड़ा होने के
हैं सबकी आँखों में सपने !
स्वप्नदर्शियों ने जग लूटा
तेरी क्या औक़ात फ़कीरे !