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कैसी स्याह रात गई अब सवेरा लगता है / शमशाद इलाही अंसारी

कैसी स्याह रात गई अब सवेरा लगता है ।
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है ।

मेरी कफ़स के बाहर से मुझको रोज़ चिढाता है,
ये कोई दानिश्मंद नहीं यूँ ही आवारा लगता है ।

दाना नहीं ये ज़जीरें हैं, ओ नादान परिंदे जान,
परवाज़ में मुड़ के देखे, अंदाज़ सुहाना लगता है ।

कपड़ों की तरह बदलता है अब अपने लवा-यकीन,
सैय्याद अपने इरादों पे अब इतराता लगता है ।

वो चमकता एक सितारा अचानक गुम हुआ,
गुमशुदगी का ये वही मसला पुराना लगता है ।

क़ासिद वही क़ाग़ज़ भी और पैग़ाम भी वही,
हाक़िम तेरे हर्बों का हर जाल स्याना लगता है ।

आदिल नही वो क़ातिल है, "शम्स" कह रहा कब से,
वो हमसफ़र, हमक़दम था अब क्यों बेगाना लगता है ।

रचनाकाल: फ़रवरी 2011