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कैसे गीत प्रणय के गाये / राकेश खंडेलवाल

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ये अम्बर पर घिरी घटाओं में घुलते यादों के साये
ऐसे में अब गीत प्रणय के कोई गाये तो क्या गाये

टूटी हुई शपथ रह रह कर कड़क रही बिजली सी तड़पे
मन के श्याम क्षितिज पर खींचे सुलग रही गहरी रेखायें
भीगी हुई हवा के तीखे तीर चुभें आ कर सीने पर
आलिंगन के घावों की फिर से रह रह कर याद दिलायें

और अकेलापन ऐसे में बार बार मन को हुलसाये
ऐसे में अब गीत प्रणय के गाये भी तो कैसे गाये

बारिश की बून्दों में घुल कर टपक रहे आंखों के सपने
खिड़की की सिल पर बैठे हैं सुधि के भीगे हुए कबूतर
परदों की सिलवट मेम उलझी हुईं इलन की अभिलाषायें
और आस बुलबुलों सरीखी, बनते मिटते रह रह भू पर

उनका फ़ीकापन दिखता है छाये हुए अंधेरे में भी
डूब तूलिका ने आंसू में अब तक जितने चित्र बनाये

झड़ी बने दस्तक देते हैं द्वारे पर आकर ज़िद्दी पल
छँटती नहीं उदासी को ओढ़े जो बैठी है खामोशी
दीवारों पर चलचित्रों सी नर्तित हैं परछाईं धुंधली
और हवायें लगता खुद से ही करती रहतीं सरगोशी

कोरा कागज़ पड़ा मेज पर बिन बोले मुंह को बिचकाये
ऐसे में अब गीत प्रणय को कैसे तुम बतलाओ गाये