कैसे हार गए? / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही
अँधियारों के सन्धि पत्र पर
बैठ गए करने हस्ताक्षर
सूरज अभी नहीं डूबा है
कैसे हार गए?
माना यह गन्तव्य दूर है
नदिया उफनी उठा पूर है
पर फौलादी बाँहों वाले
चाहों में संकल्प महा ले
उतर गये जो मझधारों में
वे ही पार गए।
उठी आँधियाँ
तो उठने दो
कदम एक पल
मत रुकने दो
राहों के अवरोधन छाँटो
दोनों हाथ उजाले बाँटो
सूर्य पुत्र हम उजियारों को
किसके द्वार गए?
पंख गरुड़ के बँधते हैं क्या?
रत्न सिन्धु के चुकते हैं क्या?
क्षमताएँ भीतर हैं अपने
सत्य हमे करने हैं सपने
कैसे फिर
संकल्पित मन में
ये कुविचार गए?
27.5.2018
पिये मौन बैठे रहते हो
पिये मौन बैठे रहते हो
कुछ तो समझो नब्ज समय की
शायद मेरा गीत
तुम्हारे संवेदन को
फिर दहका दे।
मेरी और तुम्हारे घर की
दूरी कुछ क़दमों की समझो
पर लगता है हम बरसों से
अलग-अलग नगरों के वासी
तुम मन्दिर के चक्कर लेकर
हनूमान चालीसा पढ़ते
हम छाती पर धरे पुस्तकें
पड़े-पड़े ले रहे उबासी
निपट अबोली
इस खिड़की से
ऐसी एक हवा चल जाए
खिले मोगरा द्वार तुम्हारे
मेरे घर तुलसी महका दे।
किसी मलय की
मदिर गन्ध ने
कभी प्यार से तुम्हें छुआ है?
कभी देहके तन्त्र बजे हैं
उल्लासित उद्वेग हुआ है?
घुँघरू के सरगम के स्वर पर
रात-रात मीरा नाची है
मोहन की पाती राधा ने
धड़कन पर धर कर बाँची है
मन्दिर की पूजा के भीतर
ऐसा कोई दीप जला है
अन्तःपट उजियारा कर दे
प्राण ज्योति निर्झरी बहादे?