आँगन में दलदल फैली है
दीवारों पर काई
घर ही घर का दोषी हो जब
कैसे हो सुनवाई
पूरे घर में हरा-भरा है
बस तुलसी का पत्ता
चार रोटियाँ का पाया है
घर ने जीवन भत्ता
आह-रुदन में बदल गई है
तुलसी की चौपाई
झुकी कमर ले पड़ी हुई है
उधड़ी खाट पुरानी
हँसी ठहाके उत्सव लगते
बीती एक कहानी
शहर गई खुशियों की आखिर
कौन करे भरपाई
जो कल छत थे, नई मंजिलों
को वे ढ़ाल रहे हैं
नए-नए सपनों को आँखों में वे
पाल रहे हैं
और नीव दब रही बोझ से
झेल रही तन्हाई