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कोई अक्स नहीं बनता / श्रीप्रकाश मिश्र

कोई अक्स नहीं बनता
कोई पदचाप नहीं उभरती
कोई दरवाज़ा खटखटाता है
वहाँ कोई नहीं
सिर्फ़ हवा है कोई

आप दरवाज़ा खोलेंगे
तो भीतर आएगी
पकड़ेगी कोई पत्ता
पत्ता उसमें उड़ेगा
हर ताल पर नाचेगा

नहीं खोलेंगे
तो लौट जाएगी
हालाँकि वह कोई नदी नहीं है
अँधेरे में रोशनी की बहुत बारीक
रेख की तरह बहेगी
जो उसके साथ बढ़ेगा
पहाड़ चढ़ जाएगा
खिलाफ़ चलेगा
तो उड़ जाएगा
सम्बन्धों की गरमाहट की तरह