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कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती इस दुनिया में / चन्द्र

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मेरी फटती छाती और पीठ पर
उऽऽउफ़्फ़ !
कितने घाव हैं ?

उऽऽउफ़्फ़ !
उऽऽउफ़्फ़ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस दुनिया में ।

कि एक मामूली मजबूर मजूर के घावों के भीतर
टभकते
कलकलाते मवाद को
धीरे-धीरे-धीरे आहिस्ते-आहिस्ते
और नेह-छोह के साथ
कोई काँटा चुभो दे
फोड़कर
उसे बहाने के लिए…उऽऽउफ़्फ़ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस दुनिया में ।

ओह !
कितनी पराई दुनिया है ना ‘मोहन’
कि समझती नहीं
कोमल आह
हमारे जैसे बेबस मज़दूरों की !

उफ़्फ़ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस दुनिया में !

उसकी लहू-सी लाल आँखों में..
उसकी लहू-सी लाल आँखों में
खतरनाक शोषण की डरावनी निशानियाँ
दिखती थी…

मैं देख रहा था उसे कि तभी
धाँय से
चीख़ते हुए
भीतर-बाहर पसीजते हुए
वहीं की पथरीली ज़मीन पर
बुरी तरह से गिर पड़ा था वह

और मेरे होठों पर
एक शब्द था —

आह !