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कोई गीत कहाँ से गा दूँ? / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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कुछ भी
पढ़ा नहीं है दिन भर
कुछ भी लिखा
नहीं है गाया
मन अपराधी सा लगता है
मौसम पिटा-पिटा अनभाया
बादल घिरे
घुमड़कर बरसे
गरजे, उघरे, चले गये हैं
अपने तो, सपने ही जैसे
असमय आकर छले गए हैं
किससे अपना दर्द बाँट लूँ
किसको, मन की बात बता दूँ?

एकाकी कमरे की खिड़की
जाने कब से खुली नहीं है
नवागता पावस की अब तक
पहली चूड़ी बजी नहीं है
सिहरी नहीं देह की जड़ता
छलकी, बही, नहीं रस धारा
चहका नहीं पपीहा भीतर
जगा न, मंदिर का उजियारा
सूने खंडहर की मुँडेर से
कैसे, राग मल्हार सुना दूँ?

पनघट तो उफने उफने हैं
प्यास आज भी तरसी-तरसी
भरे-भरों को ही भरते हैं
ये अपने बादल समदरसी
और हवाओं के शातिर दल
क्षण-क्षण बदल रहे हैं तेवर
समझ नहीं आता है कुछ भी
किसकी ढपली पर किसका स्वर
मैं तालियाँ पीट दूँ किसकी
या किसके मंजीर बजा दूँ?