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कोई छीलता जाता है / रश्मि शर्मा

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मन पेंसि‍ल सा है
इन दि‍नों
छीलता जाता है कोई
बेरहमी से
उतरती हैं
आत्‍मा की परतें
मैं तीखी, गहरी लकीर
खींचना चाहती हूँ
उसके वजूद में

इस कोशि‍श में
टूटती जाती हूँ
लगातार
छि‍लती जाती हूँ
जानती हूँ अब
वो दि‍न दूर नहीं
जब मि‍ट जाएगा
मेरा अस्‍ति‍त्‍व ही

उसे अंगीकार
कि‍या था
तो तज दि‍या था स्‍व
उसके बदन पर
पड़ने वाली हर खरोंच
मेरी आत्‍मा पर पड़ती है

मन के इस मि‍लन में
मैंने सौंपी आत्‍मा
उसने पहले सौंपा
अपना अहंकार
फि‍र दान कि‍या प्‍यार

वाणी के चाबुक से
लहूलुहान है सारा बदन
पर अंगों से नहीं
आत्‍मा से टपकता है लहू
कोई छीलता जाता है

मन अब हो चुका है
बहुत नुकीला
पर इसे ही चुभो कर
दर्द दिया नहीं जाता , उसे
जि‍से अपनाया है

चोटि‍ल आत्‍मा
अब नहीं करती कोई भी
सवाल
हैरत है तो बस इस बात पर
कि‍ बेशुमार दर्द पर
एक शब्‍द ‘प्‍यार’ अब भी भारी है।