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कोई जज़ा कोई मनसब कोई सिला भी नहीं / कांतिमोहन 'सोज़'

कोई जज़ा कोई मनसब कोई सिला भी नहीं I
सितम है उससे किसी को कोई गिला भी नहीं II

अजीब है कि मुझे इस क़दर यगाना लगे,
वो एक शख़्स जो मिलकर मुझे मिला भी नहीं I

हरेक शै में कमी हो गई किसी शै की,
अगरचे उसने जो छोड़ा था वो ख़ला भी नहीं I

तवील उम्र को क्यूँकर तमाम करना है,
नदीम ये मेरा मर्ग़ूब मश्ग़ला भी नहीं I

लो फूँक-फूँक के ताउम्र छाछ पीता रहा,
वो खुशअमल जो कभी दूध से जला भी नहीं I

सितम है सोज़ तुम्हें रास्ता दिखाता रहा,
वो रहनुमा कि जो उस राह पर चला भी नहीं II