Last modified on 29 जुलाई 2013, at 09:06

कोई भी दार से ज़िंदा नहीं उतरता है / शकील जमाली

कोई भी दार से ज़िंदा नहीं उतरता है
मगर जुनून हमारा नहीं उतरता है

तबाह कर दिया अहबाब को सियासत ने
मगर मकान से झण्डा नहीं उतरता है

मैं अपने दिल के उजड़ने की बात किस से कहूँ
कोई मिज़ाज पे पूरा नहीं उतरता है

कभी क़मीज के आधे बटन लगाते थे
और अब बदन से लबादा नहीं उतरता है

मुसालेहत के बहुत रास्ते हैं दुनिया में
मगर सलीब से ईसा नहीं उतरता है

जुआरियों का मुक़द्दर ख़राब है शायद
जो चाहिए वही पत्ता नहीं उतरता है