भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोई सिलसिला नहीं जावेदाँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी / अज़हर फ़राग़
Kavita Kosh से
कोई सिलसिला नहीं जावेदाँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी
मैं तो हर तरह से हूँ राएगाँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी
मिरे हम-नफ़स तू चराग़ था तुझे क्या ख़बर मिरे हाल की
कि जिया मैं कैसे धुआँ धुआँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी
न तिरा विसाल विसाल था न तिरी जुदाई जुदाई है
वही हालत-ए-दिल-ए-बद-गुमाँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी
मैं ये चाहता हूँ कि उम्र-भर रहे तिश्नगी मिरे इश्क़ में
कोई जुस्तुजू रहे दरमियाँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी
मिरे नक़्श-ए-पा तुझे देख कर ये जो चल रहे हैं उन्हें बता
है मिरा सुराग़ मिरा निशाँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी