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कोख / विनोद दास

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वह न तो सिर्फ खट्टी मितली है
न सिर्फ़ सूजे पाँव
न ही स्वाद की नई-नई फ़रमाइश है
  
वह सृष्टि की पहली ख़ुशी है
और इतनी बड़ी
कि ओढ़नी या पल्लू के पीछे भी
छिप नहीं पाती
 
उसका उभरा बड़ा पेट
इस कायनात का सबसे सुन्दर दृश्य है
 
शर्म से झुक जाती हैं मेरी आँखें
इस बड़े पेट के साथ वह फ़र्श पर पोंछा लगा रही है
बाल्टी पर झुकी कपड़े पछीट रही है
चिलचिलाती धूप में
सडक पर गिट्टियाँ कूट रही है
 
मेरी ग्लानि की कोई सीमा नहीं है
जीवन रचने के क्षण में
वह निराहार तारे गिन रही है
 
सौरी से बाहर छनकर आती
वह दरअसल पृथ्वी की सबसे करुण कराह है
 
सन्तान की भूख मिटाने के लिए
अपनी भूख मारने का वह अभ्यास है
 
बिस्तर पर टट्टी-पेशाब में लथपथ
वह ऐसा रतजगा है
जिसका मूल्य विश्व का कोई बैंक नहीं चुका सकता
 
ज़िन्दगी के तीसरे दौर में
कीड़े की तरह चेहरे की कुलबुलाती झुर्रियों के बीच
अब जब वह एक हिलती हुई ठोढी भर रह गई है
उसकी औलाद ने उस दन्तहीन पोपली को तज दिया है
केंचुल की तरह

वह उसके ख़त का जवाब नही देता
वह उसे मेले या स्टेशन पर अकेले भटकने के लिए छोड़ देता है
वह उसका मोबाइल नहीं उठाता
ईद दीवाली घर नहीं आता
अपने घर में उसे रखने की जगह
वह बिल्ली या कुत्ते पालता है

वह हवा में गुम उस शब्द-सा है
जो बोलने के बाद वापस लौटकर नहीं आता

पानी का इन्तज़ार करती
वह रेगिस्तान की ख़ाली बाल्टी है
मौत के लिए
माँगती भीख है
 
उसके पास मीठी लोरी की धुन है
पुरानी पेटी में उसके बचपन की कुछ लंगोटियाँ हैं
उन नन्हें-नन्हें पाँवों की धुँधली याद है
जो कोख में उसको धीरे-धीरे मारते थे
और उसको अनिर्वचनीय खुशी से भर देते थे
   
छूछे बादल सरीखी पगली सी भटकती
वह एक ऐसी अभागिन है
डॉक्टर ने निकाल दी हो जिसकी कोख
कैंसर के मरीज़ की तरह
 
वह अक्सर रात के तीसरे प्रहर नींद से उठती है
और अपनी बगल की ख़ाली जगह टटोलने के बाद
रसोई में रोटी बनाने लगती है
उस भूखे बेटे के लिए
जिसने दरवाज़ा खटखटाया था
अभी कुछ देर पहले
उसके सपने में