भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोनो बिसरल गामक नाम दू पाँती / राजकमल चौधरी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:38, 5 अगस्त 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(1)

साँझक सिन्नुराह अन्हारमे डूबल गंगा नदीक घाटपर
ठाढ़ होइत छी,
नहि मोन पड़ैत अछि ओ छोट-छीन धार...
नाहपर झिझरी खेलायब
मलाह-गोंढ़िक गीत गायब बहकल स्वरमे
सिनेह-पोसल कुकूर जकाँ
घाट-बाट घुरिआयब नहि मोन पड़ैत अछि।
भगवती-थानक ओ गोल-गुम्बदवला मन्दिर,
आ, मन्दिरक स्वामिनी...
ओ शान्त-स्निग्ध मुखाकृति
ओ प्रार्थना-मन्त्र
ओ सभटा बिसरि गेल अछि, जकरा कारणेँ
हमरा हृदयमे कविता छल,
आ, हमर आँखिमे हिरण्यगर्भ इजोत!

(2)

साँझक सिन्नुराह अन्हारमे डूबल गंगानदीक घाटपर
ठाढ़ होयत छी,
तेँ लगैत अछि, शरीरसँ बहारक’ हमर ओ पूर्वजीवन
हमर ओ पूर्वजीवन
अठबज्जी स्टीमरपर चढ़िक’ जा रहल अछि
ओहि पार-
हमरा शरीरसँ विदा ल’!
ओहिपार, आ गंगाक एहि पारमे आब पचीस वर्ख
आ, दू जन्मान्तरक अन्तर अछि...

(3)

सुखा गेल होयत ओ चित्रलिखित सन छोट धार
ओ शान्त-स्निग्ध मुखाकृति
आत्मग्लानिसँ भ’ गेल होयत ज्वालामुखी...
ओहि गामक सभ लोक बरौनी-कारखानामे, अथवा
कलकत्ता-जमशेदपुर...
बचि गेल होयत केवल स्त्री-समाज
मनीआर्डरक प्रतीक्षा
आ, बीतल वयसक स्मृतिमे व्यस्त!

(मिथिला मिहिर: ५-६-६६)