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कोयल की कुहक का यहीं अंत है / गुलाब खंडेलवाल

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कोयल की कुहक का यहीं अंत है
माना, पुन: लौटता वसंत है
 
तरु से जो पत्र आज झड़ गया
आयेगा रूप लिए फिर नया
जीवन अमर है यही जानकर
आती न हो वायु को तनिक दया
रोता ही रहा परन्तु वृंत है
 
सिन्धु-तीर लहरों का ताँता है
मन का जुड़ गया कहीं नाता है
सलिल वही लौटता हो बार-बार
ज्वार वही लौट नहीं पाता है
क्या हो जो सृष्टि-क्रम अनंत है

कोयल की कुहक का यहीं अंत है
माना, पुन: लौटता वसंत है