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कौनी गरहनमा बाबा साँझ जे लागै / अंगिका लोकगीत

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

इस गीत में यह वर्णित है कि बेटी के विवाह से पिता को कभी निष्कृति नहीं मिलती। उसके बोझ से वह हमेशा, अनिश्चित काल तक, दबा रहता है। विवाह के बाद सबकी घबराहट दूर हो जाती है तथा सभी प्रसन्न हो उठते हैं।

कौनी<ref>कौन</ref> गरहनमा<ref>ग्रहण</ref> बाबा साँझ जे लागै<ref>लगता है</ref>, कौनी गरहनमाँ भिनुसार हे।
कोनी गरहनमाँ बाबा लागै न बेर<ref>समय</ref> ताकि<ref>देखकर</ref>, कबहुँ न होय उगरास<ref>मोक्ष; ग्रहणमुक्ति; लोक में इसे ‘उगास’ या ‘उगरगहन’ भी कहते हैं</ref> हे॥1॥
चंदर गरहनमाँ बेटी साँझे जे लागै, सुरुज गरहनमाँ भिनुसार हे।
धिआ के गरहनमाँ बेटी लागै न बेर ताकि, कबहुँ न होय उगरास हे॥2॥
हाथी काँपै हथिसार रे दैबा, घोड़ा काँपै घोड़सार हे।
जब<ref>जौ; यव</ref> कुस लै हाथ काँपै बेटी बाप, कब होयत हमरो उगरास हे॥3॥
जनु<ref>मत; नहीं</ref> काँपह<ref>काँपो</ref>, जनु घोड़ा काँपह, जनु दहलह<ref>दहलो</ref> लोग बरियात हे।
भेल बिआह रामे मन हरखित, हरखित नगर समाज हे॥4॥

शब्दार्थ
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