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कौन आएगा मेरे साथ? / प्रतिभा सक्सेना

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हथेली पर धर कर अंगार,
चीरने को अथाह अँधियार-
कौन आएगा मेरे साथ?



उमड़ती नेताओं की भीड,
जोंक ज्यों, फूले हुए शरीर,
भरी है भूख अगाध!
घृणा का कर बेरोक प्रचार,
राष्ट्र हित को चूल्हे मे झोंक,
कहाते कर्णाधार!
भ्रष्ट, कपटी ये रँगे सियार
बने हैं जन-जन के संताप,
भेडिये ये खूँख्वार!



और ये सौदेबाज़!
विवशता भूख-प्यास को तोल,
बेचते रोग व्याधि औ ताप!
मिलावट और काला बाज़ार!
न कोई सोच, न ग्लानि, न क्षोभ!
इन्ही की है करतूत - अंध औ बधिर शरीर,
लुंज तन और मुड़े सब अंग,
कान, सुन करुण विलाप,
पा रहे तृप्ति अपार!
बिकी आत्मा, बिक चुका विवेक,
कहाँ इनके कलुषों की थाह?



धर्म के बनते जो अवतार,
नाम छपने को देते दान,
भरा अंतर मे पाप,
होंठ पर हरि का नाम!
दिखाने को भगवान
किन्तु मंदिर पर इनका नाम!
चढ़ावा औ प्रसाद उत्कोच,
ईश्वर पर एहसान,
कुण्डली मार पड़े चुपचाप
समेटे धन को काले नाग!



स्वयं को बता प्रबुद्ध,
होंठ सीकर बन बैठे मूक,
धरे हाथों पर हाथ!
निगल जाते मक्खियाँ,
मूँद आँखें, धर मौन यही धृतराष्ट्र!
तर्क के फैला जाल,
मंच भर वाद-विवाद, ग्रंथ-भर ऊहापोह,
बुद्धि पर बलात्कार!



अरे, ये बड़े धुरंधर लोग,
उठा लेते सिर पर आकाश!
चतुर्दिक आग, अश्रु और चीख,
यहाँ दिग्भ्रमित समाज,
किन्तु ये ऊँचे लोग,
किनारे हो चुपचाप,
उगल देते दार्शनिक विचार!



सत्य कैंची से काट,
कलम से तोड़-मरोड़,
मिलाकर नमक -मिर्च रोमांच,
बना लेते स्कूप,
पृष्ठ काले कर भर अख़बार,
नई पीढी को पिला अफ़ीम,
किया करते गुमराह!
कहाँ प्रारंभ,कहाँ है अंत,
भरा है पारावार!



सुनोगे क्या पथ- बन्धु,
तुम्हें इतना अवकाश?



कौन आएगा मेरे साथ-
डूबकर लेने थाह?
सहन करने केवल उत्ताप,
सिर्फ़ बदनामी औ उपहास
समझ कर अपना प्राप्य,
कौन विष पीने को तैयार,
हथेली पर धर ले अंगार
कौन आएगा?



खोलने पाखंडों की पोल,
छिपा कर रक्खे जो कंकाल
बंद कमरों से उन्हें निकाल,
दिखाने असली रूप!
खोजने तथ्य, शोधने सत्य,
तोड़ने भ्रम के जाल!
कौन आएगा?



विषम जीवन के सिर धर शाप,
और उपहास, व्यंग्य-अपमान -
यही पाथेय!
सदाशिव सा अविकार,
गरल पी निस्पृह, शान्त,
कौन आएगा मेरे साथ?