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कौन कहता है कि मर जाने से कुछ हासिल नहीं / मेला राम 'वफ़ा'

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कौन कहता है कि मर जाने से कुछ हासिल नहीं
ज़िंदगी उस की है मर जाना जिसे मुश्किल नहीं

हाँ ये सारा खेल परवानों की जाँ-बाज़ी का है
शम-ए-रौशन पर मदार-ए-गिर्या-ए-महफ़िल नहीं

आम ही करना पड़ेगा उन को फ़ैज-ए-इल्तिफ़ात
ग़ैर हरगिज़ इल्तिफ़ात-ए-ख़ास के क़ाबिल नहीं

मुंतख़ब मैं ही हुआ मश्क-ए-तग़ाफुल के लिए
वो तग़ाफ़ुल-केश मेरी याद से ग़ाफ़िल नहीं

हल्क़ा-ए-गिर्दाब है गहवारा-ए-इशरत मुझे
ज़ौक-ए-आसाइश मिरा मिन्नत-कश-ए-साहिल नहीं

देखिए क्या हो हमारे शौक़-ए-मंज़िल का मआल
पाँव में ताक़त ब-क़द्र-ए-दूरी-ए-मंज़िल नहीं

लाख दिल क़ुर्बान उस चश्म-ए-नदामत-कोश पर
या'नी मुझ को आरज़ू-ए-खूँ-बहा-ए-दिल नहीं

मरजा-ए-बर्क़-ए-बला है ऐ 'वफ़ा' दुनिया-ए-इश्क
हासिल-ए-हसरत यहाँ जुज़ हसरत-ए-हासिल नहीं।