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क्या-क्या पापड़ बेल चुके हैं अब ग़म से घबराना क्या? / कांतिमोहन 'सोज़'

क्या-क्या पापड़ बेल चुके हैं अब ग़म से घबराना क्या ?
खेल तो सारे खेल चुके हैं अब जी का बहलाना क्या ?

तू तो हमारा साथ निभाता तू तो वफ़ा का हामी था
तेरे बिना तो ऐ ग़मे-जानां जीना क्या मर जाना क्या ?

आप अगर नाराज़ न हों तो एक सवाल हमारा है
हाथों पर गर ख़ार उगे हों ज़ख्मों को सहलाना क्या ?

हम न कहेंगे कुछ न कहेंगे चुप ही रहेंगे जीवन भर
नादां को समझाए मूरख दाना को समझाना क्या ?

हमसे न कीजे मीठी बातें उनकी हमें दरकार नहीं
आगज़नी करनी ठहरी तो पानी डाल बुझाना क्या ?

पहलू में रक्खा हो पत्थर सर में भरी हो आतिशे-ज़र
उस महफ़िल में शेर सुनाकर मुफ्त लहू गरमाना क्या ?

चाक करो अब अपना दामन सोज़ वगरना ख़ैर नहीं
नंगों की बस्ती में रहकर नंगों से शर्माना क्या ?