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क्या करे आदमी जब न मंज़िल मिले / तिवारी

क्या करे आदमी जब न मंज़िल मिले
आपसे आप बढ़ते रहें फ़ासले

जिस कहानी का आग़ाज़ थीं रोटियाँ
उसका अंजाम हैं भूख के सिलसिले

दूर तक व्यर्थताओं का विस्तार था
बस भटकते फिरे शब्द के काफ़िले

एस सफ़र में हुए हैं अजब हादिसे
प्यास को भी मिले तो समन्दर मिले

लोग ख़ुद ही शिला बन के जमते गए
चाहते थे व्यवस्था का पर्बत हिले