कितना श्रृंखलित है
अपराध का बोध
कितना ईश्वरीय है
प्रतीक्षा का प्रयोजन
हमें ईश्वर की नही
अपराध की ज़रुरत है
कितनी कारोबारी है
नौजवानो की प्रतिभा
कितना साहित्यिक है
कलम का लहुलूहान
हमें कारोबार की नही
साहित्य की ज़रुरत है
कितना सामन्तवादी है
समाज का हर गुट
कितनी सियासती है
गले की कुप्पी की धधक
हमें समाज की नही
धधक की ज़रुरत है