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क्या जबाब होगा ? / गोरधनसिंह शेखावत

हां,
अब तक मैं महसूस करता रहा हूं कभी कभी
लेकिन इतना आगे निकल आया हूं
कि तुम्हारे गुस्से का
क्या जबाब दूं ?
खुद को पूछता अवश्य हूं-
कब तक मुरझाएगा
तपती धूप को सिर पर यूं झेल कर

फूलों की कोमलता-कठोरता का
क्या कोई फर्क पड़ता है वृक्षों को
कभी पतझड़ – कभी बसंत !

जानता हूं
वह सरोवर कभी खींचता था मुझे
और मेरा इंतजार
खींचता था मुझे
वे सपने
अब एकदम पीछे छूट गए
ॠतुएं आती हैं
और सूनापन ओढ़े पत्थर पर
जहां खुदे हैं
मेरे और तुम्हारे नाम
बार बार बांचती है ।

सोचता हूं-
इन दहकती सांसों की खुशबू से
गर्म मेरी हथेलियों की रग-रग
मुझे थामता है मेरा ही खून
चट्टान-सा कठोर बन कर
उस समय मैं भींच लेता हूं
मेरी दोनों मुट्ठियां
खुद के होने के
अहसास से ।

अनुवाद : नीरज दइया