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क्या तुमने मुझको आविष्कार किया? / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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निकलकर किसी आदिम गुफा से
पत्थरों को रगड़कर जलायी आग
जंगलों को साफ कर खडी की घर
चरागाह को किया समतल और बना ली खेत
पसीना और ख़ून का बीज बोकर खिलायी सभ्यता
चलती रही कभी ख़त्म न होने वाली प्रेम की अनादि राह पर
आकण्ठ डूबती हुई पार कि पृथ्वी के सभी सीमसार
और भागती रही रास्ता ढूढ़़़ने के लिए
घने वर्षा-बन में अकेली–अकेली

महोदय
क्या तुमने मुझे आविष्कार किया है ?

क्या तुमने सिखाया है चिडि़यों को उड़ना?
फूलों को खिलना?
नदियों को बहना या हवा को सिसकारना?

चिडि़या हूँ उड़ती हुई फैल रही हूँ
फूल हूँ नित्य खिल रही हूँ
नदी हूँ बह रही हूँ
और हवा हूँ
गति का गीत गा रही हूँ।

चलते चलते कालान्तर यात्रा
अभी अड़ा रही हूँ विश्राम स्थल में पैर
क्या मेरे पैरों को तुमने आविष्कार किया ?

खोलते ही धरती में
धूप से सान लगाकर
उज्ज्वल बनाया आँखों को
और बनायी आँखें होने लायक
खोदा छाती में
हज़ार सपने इधर–उधर करनेवाला
दुर्गम रेशम मार्ग
और लिखा माथे पर भाग्य का अन्तिम फ़ैसला
क्या तुमने बनाए मेरी आँखें और मेरे हाथ?

अपना ही मेरुदण्ड और पसली निकालकर बनायी औजार
हर बार
इन्सान होकर जीने के लिए अन्तिम युद्ध सोचकर
लड़ती रही युगभर केवल युद्ध
और ढूँढ़ते हुए
युगों से किसी ने छीन कर रखा हुआ
अपने ही चेहरे का नक्शा
चलती रही
सिने में पागल आँधी लेकर
जैसे कि,मिला हो कोलम्बस को कोई नया भूगोल
क्या तुम्हे मिला था कहीं मेरा चेहरा?

यह हवा किसकी है?
यह मिट्टी और जल किसके हैं?
किसके हैं इतिहास, धर्म और कला?
किसके हैं विचार, शब्द और लय?
कौन है सृष्टि का उत्तराधिकारी?
कौन हूँ मैं?
केवल तुम्हारी प्रदर्शनी में रखी हुई
निर्जीव, निर्विवेक, निस्पृह गुडि़या?

सवालों के अनन्त कीड़े चल रहे हैं मेरे जेहन में
मेरी माँ के गर्भाशय और पिता की शुक्रकिट की धज्जियाँ उड़ाते हुए
मण्डी में ढेर लगाया हुआ सब्जी जैसा
कौन हो तुम मेरे अस्तित्व के ऊपर स्वामित्व का दावा करने वाले?

जन्मजात
मैं लेकर आयी हूँ अपने साथ
एक नैसर्गिक चेहरा
मैं नहीं दूँगी किसी को
आविष्कार का मोहर लगाकर
क्रूरतापूर्वक
अपने अस्तित्व के ऊपर शासन करते रहना।