Last modified on 23 अप्रैल 2011, at 18:45

क्या दहशत क्या मंज़र है / विज्ञान व्रत

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:45, 23 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विज्ञान व्रत |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <Poem> क्या दहशत क्य…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

क्या दहशत क्या मंज़र है
सारा शहर छतों पर है

अफ़साना इतना-भर है
बस इक नाम लबों पर है

आँखों में इक अंबर है
और नज़र धरती पर है

ओढ़ें और बिछा भी लें
घर इतनी तो चादर है

दर चुप है, दीवारें चुप
लगता है, वो घर पर है !