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क्या न हुआ, जो अनहोना था / रामगोपाल 'रुद्र'
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क्या न हुआ जो, जो अनहोना था,
केवल तुम न हुए, तो क्या!
सपने तो अपने हैं वे ही
दीवाने लौलीन सनेही;
स्वर के पर छूकर भी तुमने
पर के स्वर न छुए, तो क्या!
रोए राग हँसे सीपों में,
सोए त्याग जगे दीपों में;
मधु के फूल चुए माटी पर,
जीवन में न चुए तो क्या!
नभचुम्बी स्मृतियों के हिम-पथ
ढर आए बनकर निर्झर-रथ;
अमिट हुए मिटकर जो लय में,
प्रलय हुए न मुए, तो क्या!