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क्या प्यार ने हमको भरमाया था / बरीस सदअवस्कोय / अनिल जनविजय

क्या प्यार ने हमको भरमाया था,
हम स्लेज पे चढ़कर घूम रहे थे ?
चारों तरफ़ नीला कोहरा छाया था,
सोए हुए बूढ़े मसक्वा में झूम रहे थे ।

कोचवान को हमारे जैसे पंख लगे थे,
घोड़ा भी था पंखों वाला ।
पूरा मसक्वा सो रहा था तब
क्या चिन्ताओं पर पड़ा था पाला ?

आकाश ढका था तारों से जब,
हम तरुपथ से गुज़र रहे थे ।
और काली टोपी की गर्मी से
तेरे होंठ फैलकर बिखर रहे थे ।

वहाँ चौराहे पर देवालय के पास
फीकी रोशनी मन खरोंच रही थी ।
पूश्किन की मूर्ति बर्फ़ ढकी थी
वो चेहरा हिला कुछ सोच रही थी ।
 
और वहाँ गली के नुक्कड़ पर
गेट खुला पड़ा था इन्तज़ार में ।
तभी गुज़री ट्राम भड़-भड़ कर
तारों की आँखें नम थीं प्यार में ।

बर्फ़ीला तूफ़ान चल पड़ा भयानक
मसक्वा पर चान्दनी पसर गई थी ।
यह स्वप्न नहीं था कोई अचानक
सच्चाई थी, जो बिखर गई थी ।
 
1911

मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय

लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
         Борис Садовской
   Не любовь ли нас с тобою...
 
Не любовь ли нас с тобою
В санках уличных несла
В час, когда под синей мглою
Старая Москва спала?
 
Не крылатый ли возница
Гнал крылатого коня
В час, когда спала столица,
Позабыв тревоги дня?
 
Помню иней над бульваром,
В небе звездные рои.
Из-под черной шляпы жаром
Губы веяли твои.
 
У часовни, подле кружки,
Слабый огонек мигнул,
Занесенный снегом Пушкин
Нам задумчиво кивнул.
 
На углу у переулка
Опустелый ждал подъезд.
Пронеслись трамваи гулко.
Были нежны взоры звезд.
 
Под веселый свист метели
Месяц серебрил Москву.
Это было в самом деле.
Это было наяву.
 
1911