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क्या बताऊँ , इस ज़माने का यही दस्तूर है / चेतन दुबे 'अनिल'

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क्या बताऊँ , इस ज़माने का यही दस्तूर है ।
आज जो अपना है, कल वो ही नज़र से दूर है।

स्वार्थ में अन्धा हुआ है इस क़दर अब आदमी -
अर्थ के पीछे पड़ा है, क्या करे मजबूर है।

मैं कभी था दोस्त जिसका , अब वही दुश्मन कहे -
क्या हुआ , वो आज भी मेरी नज़र का नूर है।

एक दिन था - जबकि मैं परिरम्भ में आबद्ध था -
वक्त की है बात अब वो मुझसे कोसों दूर है।

फूल झरते थे कभी जिसकी मधुर मुस्कान से -
मोम की मूरत वही अब क्रूर से भी क्रूर है।

मैं कभी जिसकी निगाहों का रहा तारा वही -
दूसरों की महफ़िलों के वास्ते अब हूर है।

चार दिन की चाँदनी थी, अब अँधेरा पाख है -
क्या करे कोई कि जब विधि को यही मंजूर है।