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क्या बताऊं कैसा ख़ुद को दर-ब-दर मैंने किया / वसीम बरेलवी

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क्या बताऊं कैसा ख़ुद को दर-ब-दर मैंने किया,
उम्र भर किस-किस के हिस्से का सफ़र मैंने किया ।

तू तो नफ़रत भी न कर पाएगा इतनी शिद्दत के साथ,
जिस बला का प्यार तुझसे बे-ख़बर मैंने किया ।

कैसे बच्चों को बताऊं रास्तों के पेचो-ख़म,
ज़िन्दगी भर तो किताबों का सफ़र मैंने किया ।

शोहरतों की नज़्र कर दी शेर की मासूमियत,
इस दीये की रोशनी को दर-ब-दर मैंने किया ।

चंद जज़्बाती से रिश्तों के बचाने को ‘वसीम‘,
कैसा-कैसा जब्र अपने आप पर मैंने किया ।

शिद्दत: अति,
पेचो-ख़म: घुमाव- फिराव,
नज़्र: भेंट, उपहार,
जब्र: ज़ोर-ज़बर्दस्ती ।