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क्या मैं तुमको भूली? / उर्मिल सत्यभूषण

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सारी उम्र सोई, जागती
आँखों से
और जागती रही सोई आँखों से
दर्द का दीप जलाकर
तुम तो चले गये
किधर गुम हो गये
मुझे जगराते देकर
मैंने जलाकर रखा
यादों का दीया
अपने खून से
और दौड़ती रही
बदह्वास-
अंधे भटकावों को
कंटीले अटकावों को
फलांगती रही मौन-
पर पंख न फड़फड़ाने दिया
तुम्हारी याद के पाखी को
कौन सा इतिहास रचती रही
तुम्हें भुलाने की ज़िद में?
भुलाकर तुम्हें
नाचती रही अंगारों पर
इस तरह तुम्हें मैं भूली
मगर क्या मैं तुमको भूली?