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क्या यही हमें होना / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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क्या यही हमें होना।

फैलती हुई बाहों का
सहम-सहम जाना,
बढ़ती हुई दृष्टियों को
रोक-रोक लेना,
हाथ लगे जो कुछ भी-
बार-बार खोना।

भूली किसी वस्तु के-
बहाने मुड़ना,
अवश खड़ी
द्वार लगी
मूर्तित देह को निरखना:
ज्यों बनी हुई रेखाओं पर
कूँची मसि फेरे,
चलना: ज्यों कोई-
ऊँची डाल से गिरे;
बिना अश्रु ढुलकाये-
रोना।