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क्या रक्खा है / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही
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अपच हो गया है
भाषण के
इस अमृत-रस को
पी-पी कर
लगता है बस
पियो हलाहल
क्या रक्खा है
यों अब जीकर?
रहो उलझते
इनके उनके
फटे अँगरखों में ही
और नुचाते रहो खाल तुम
भीतर छुपे
बघनखों में ही
कब तक और
करें यश गायन
फटे गोदड़े ही
सी-सी कर?
ऊँट बिलाई लेकर भागी
तुमको
हाँ जी ही कहना है
महामहिम के पदचिन्हों पर
वैतरणी में ही
बहना है
दिनकर के वंशज हो
तो क्या
बेहतर है
रहना रजनीचर!
पूँछ हिलाते
जो संजय जी
सुना रहे
अन्धे सुनते हैं
फोड़ रहे हैं सिर अपना ही
जो
हित या अनहित गुनते हैं
माल मुफ्त
बेरहम पचाओ
व्यर्थ बहाओ मत
श्रम सीकर!