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क्या रब्त एक दर्द से बनते चले गए / जलील आली

क्या रब्त एक दर्द से बनते चले गए
जंगल में जैसे रास्ते बनते चले गए

कड़ियाँ कड़ी क़ुयूद की बढ़ती चली गईं
हीले रह-ए-नजात के बनते चले गए

होंटों पे खिल उठा तो हुआ दाग़-ए-दिल दुआ
क्या क्या सुख़न के सिलसिले बनते चले गए

किस सूरत-ए-सबात पे ठहरी निगाह-ए-दिल
इक रक़्स-रौ में टूटते बनते चले गए

बोते रहे लहू के दिए हम ज़मीनें में
ख़ुर्शीद आसमान पे बनते चले गए

‘आली’ मुक़ाबले का न कोई अदू रहा
हम आप अपने दूसरे बनते चले गए