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क्या है मुझमें / नौ बहार साबिर

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बून्द पानी की हूँ थोड़ी-सी हवा है मुझमें
इस बिज़ाअ’त<ref>पूँजी</ref> पे भी क्या तुर्फ़ां<ref>विचित्र</ref> अना<ref>अहम्</ref> है मुझमें

ये जो इक हश्र<ref>प्रलय</ref> शब-ओ-रोज़<ref>रात-दिन</ref> बपा<ref>मचा हुआ</ref> है मुझमें
हो न हो और भी कुछ मेरे सिवा है मुझमें

सफ़्हा-ए-दहर<ref>संसार रूपी पन्ना</ref> पे इक राज़ की तहरीर<ref>पाठ, लेख, इबारत</ref> हूँ मैं
हर कोई पढ़ नहीं सकता जे लिखा है मुझमें

कभी शबनम की लताफ़त<ref>कोमलता</ref> कभा शो'ले की लपक
लम्हा-लम्हा ये बदलता हुआ क्या है मुझमें

शहर का शहर हो जब अरसा-ए-मशहर<ref>प्रलय-क्षेत्र</ref> की तरह
कौन सुनता है जो कुहराम मचा है मुझमें

तोड़कर साज़ को शर्मिन्दा-ए-मिज़राब<ref>साज बजाने का कोण या डंका</ref> न कर
अब न झंकार है कोई न सदा है मुझमें

वक़्त ने कर दिया 'साबिर' मुझे सहरा-ब-किनार<ref>मरुस्थल की गोद में</ref>
इक ज़माने में समुन्दर भी बहा है मुझ में

शब्दार्थ
<references/>