क्यूँ इतना हैरान दिखाई देता है ।
जंगल-सा वीरान दिखाई देता है ।
उसने रोज़ा आज रख लिया है शायद,
नीयत में रमजान दिखाई देता है ।
जाने क्यूँ कर इतना मुश्किल हो जाता,
जीना जब आसान दिखाई देता है ।
रिश्तों की गहराई शायद नाप चुका,
घर में जो मेहमान दिखाई देता है ।
ख़्वाबों में हर रोज़ कश्तियाँ दिखती हैं,
क़िस्मत में तूफ़ान दिखाई देता है ।
उलझन, आँसू, रुसवाई और मयखाना,
जीने का सामान दिखाई देता है ।
वही समझ सकता है मेरी ग़ज़लों को,
जो ख़ुद से अन्जान दिखाई देता है ।