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क्या तुम प्राणों के क्षत-विक्षत ताने-बाने
मृदु स्मितियों से बुन दोगी?
. . . 'अंतर की अकलुष स्नेह-वृत्ति कब हुई मृषा!तन मिलता उससे जिससे मन की बुझी तृषा सेवा-वंचित यह, आर्य! आपकी खिन्न दशामैं दूँगी इन सूखे अंगों में सुरभि बसा जो असमय कुम्हलाये हैं . . . दिन भर तप कर रवि-से लौटोगे, जभी गेहमैं संध्या-सी देहरी-दीप में भरे स्नेहअर्पित कर दूँगी यह नामांकित सुमन-देहमैं बरस, बिखर, जैसे पावस का प्रथम मेंह अंतर मधु से भर दूँगी' . . . यों ही जीवन के बीते कितने संवत्सरचढ़ ज्वार प्रेम का चोटी तक, फिर गया उतर हिम-ताप-विकल पावस कितने दृग से झर-झरपथ के प्रवाह को मृदुल कठिनताओं से भर आ-आकर चले गये भी . . .संध्या-वंदन को गये त्वरित मुनि छोड़ शयन पनघट पर अटपट पहुँच अहल्या चकित-नयनघट पर से बहते जल में असफल मीन-चयनबन गयी सहज जय-ध्वजा मयन की ज्योति-अयनमुक्तालक-जित घनमाला खोयी-खोयी-सी चिर निरर्थ-मन, यहाँ-वहाँलौटी कुटीर में शेष त्रियामा निशा जहाँ 'छल आज उषा का! मुनि कैसे चल दिए? कहाँ?' मलयज ने कानों से लगकर कुछ मौन कहा थर-थर काँपी वह बाला . . . यह कौन कक्ष में पूनो शशि-सा मंदस्मित धकधक करता था हृदय, चेतना तमसावृत'ऋषि लौटे निशि-भ्रम जान कि प्रिय प्राणों में स्थित?कटंकित, अपरिचित नि:श्वासों से आकर्षित सर्वांग शिथिल, भय-कातर अवसन्न गौतमी, झलका ज्यों दव-सा समक्ष 'यह इंद्रजाल रच रहा कौन गन्धर्व, यक्ष? फूले फेनिल जलनिधि-सा उठ-उठ मुकुर-वक्ष द्रुत गिरा, मृगी-सी चौंक, चकित सहसा अलक्ष सकुची सुन प्रेमभरे स्वर. . .सुरपति यह जिसने पति-अनुकृति धर ली अनूप पाटल-विकीर्ण पथ नहीं, अतल चिर-अंध-कूप'कानों से लग बोले दृग-मधुकर, दंश-रूपआया कुसुमित शर ले अरूप वह बाल-भूपबह चली वायु अनुकूला सुगठित भुज-पट्ट, कपाट-वक्ष, हिम-गौर स्कंध तनु तरुण भानु-सा अरुण, स्रस्त-तूणीर-बंधदृढ जटा-मुकुट-शिर, कटि-तट मुनि-पट धरे, अंधप्रेमी के छल पर सलज, विहँस, उन्मद, सगंधउर-सुमन प्रिया का फूला . . . पगध्वनि सहसा, भुजबंधन-से खुल गये द्वार पूजोपरान्त मुनि लौटे करते-से विचार 'विभ्रम कैसा? मन आज विकल क्यों बार-बार?तप-स्खलन-हेतु क्या यह भी कोई नव प्रहार?कुछ नहीं समझ में आता देखा सहसा सम्मुख जो चिर-कल्पनातीत सुरपति कुटीर से कढ़े प्रात-विधु-से सभीत थी खड़ी अहल्या विनत, लिए मुख-कांति पीतस्मितमय भौंहों में अतनु छिपा था दुर्विनीत दुहरी जय पर इतराता . . .प्रेयसी वही जो वय-स्नेहाकुल, सजल-प्राणमानस के तट तिर आयी उस दिन चिर-अजानरागिनी वही यह आज विवादी-स्वर-प्रधानपौरुष की हँसी उडाती-सी विपरीत-तानस्वर के पर खोल रही थी अपराधी-सा पत्नीत्व खडा नत-नयन मौनयौवन अल्हड़-सा कहता, 'इसमें पाप कौन!'हँसती सुन्दरता, 'अपना-अपना दृष्टिकोण'चेतना भीत भी पिये प्रीति की सुरा-शोणदीपक-सी डोल रही थी पल में विद्युत्-सा कौंध गया निशि का प्रसंग वह छद्म प्रात का ढंग, अचानक स्वप्न-भंग नख-शिख तनु में व्यापी जैसे ज्वाला-तरंगरक्ताभ नयन, आनन पर क्षण-क्षण चढ़ा रंग अपमान, घृणा, पीड़ा का 'मैं क्षीणकाय, नि:संबल, निर्बल, संन्यासीतुम वज्रायुध , स्वर्गाधिप, नंदन के वासीइस पर भी बुझी न तृषा तुम्हारी सुरसा-सी कर गए मलिन चोरी से घर आ, मधुहासी--यह सुमन स्नेह-क्रीडा का . . .धिक् सुरपति! जिस पर लुब्ध बने सुर-सदन-त्यागतुम आये इस निर्जन में वही सहस्र-भागअंगों में होगी व्याप्त तुम्हारे ज्यों दवागयह अयश-कालिमा ले सिर पर, चिर-मलिन काग तुम भटकोगे त्रिभुवन में! मुड़कर देखा सहसा पत्नी मुख-छवि विवर्णनयनों की झर-झर व्यथा, मर्म-लज्जा अवर्ण्यपतझर की एकाकिनी लता ज्यों शेषपर्ण--जीवन-भिक्षा को, भय-कंपित आपाद-कर्ण धूसर अंचल फैलाए तड़पा अंतर करुणा-ममता-आक्रोश-विकल मुनि रहे आत्म-कातरता में जलते, निष्फल फैला कपोल पर दोषी पलकों का काजल नारी की दुर्बलता का साक्षी-सा प्रतिपलकहता था अमित कथाएँ जीवन विषमय कर गयी हृदय की क्षणिक चूकमन काँप उठा सुख का सपना पा टूक-टूकपल में कैसा यह मन्त्र काम ने दिया फूँकलज्जा-भय-च्युत नारीत्व लुटा जैसे मधूकवंचक मधुपायी-कर से कुंचित भौंहों पर झलकी चल ज्वाला-तरंग'स्वामी! अपराध क्षमा,' कहती-सी दृष्टि-संग चरणों पर पति के गिरी अहल्या शिथिल-अंग मुनिचीख उठ--'पाषाणी! यह क्या क्रूर व्यंग्यविष पी डर रही लहर से?. . .सूना कुटीर, आश्रम में उड़ता पवन पीतपतझर-झंझागम-विटप काँपने लगे भीत पल में सूखी जैसे जीवन-धारा पुनीत रह गयी गौतमी शिला-सदृश सुखदुखातीत निज भाग्य-अंक ले फूटे
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