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क्रान्तिधर्मा / अनिता भारती

प्रिय मित्र
क्रांतिकारी जयभीम
जब तुम उदास होते हो
तो सारी सृष्टि में उदासी भर जाती है
थके आँदोलन- सी आँखें
नारे लगाने की विवशता
जोर-जोर से गीत गाने की रिवायत
नहीं तोड़ पाती तुम्हारी खामोशी...

मुझे याद है
1925 का वह दिन
जब तुम्हारे चेहरे पर
अनोखी रौनक थी
संघर्ष से चमकता तुम्हारा
वह दिव्य रूप
सोने- चांदी से मृदभांड
उतर पड़े थे तालाब में यकायक
आसमान ताली बजा रहा था
सितारे फूल बरसा रहे थे

यूं तो मटके पकते है आग में
पर उस दिन पके थे
चावदार तालाब में
आयी थी एक क्रांति
तुम्हारी बहनें उतार रही थीं
हाथों- पैरों और गले से
गुलामी के निशान
और तुम दहाड़ रहे थे
जैसे कोई बरसों से सोया शेर
क्रूर शिकारी को देखकर दहाड़े

मुझे याद है आज भी वो दिन
जब चारों तरफ जोश था

तुम बढ़ रहे थे क्रांतिधर्मा
सैकडों क्रांतिधर्माओं के साथ
उस ईश्वर के द्वार
जिसे कहा जाता है सर्वव्यापी
पर था एक मंदिर में छुपा
उन्होंने रोका, बरसाये डंडे

पर तुम कब रुके?
तुम आग उगल रहे थे
उस आग में जल रहे थे
पुरातन पंथी क्रूर
ईश्वरीकृत कानून

हम गढ़ेंगे अपना इतिहास
की थी उस दिन घोषणा तुमने
दौड़ गयी थी शिराओं में बिजली
उस दिन
जो अभी तक दौड़ रही है
हमारी नसों में
हमारे दिमाग में
और हमारे विचार में।