भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्षण के उस नामालूम अंश में / तेजी ग्रोवर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:00, 5 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तेजी ग्रोवर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 क्षण के उस नामालूम अंश में
जब तुम्हारे मोह में धोखे से पड़ ही जाती है वह
क्या वह डर रही होती है कि उसकी पलकों के कम्पन से मुग्ध
तुम किन्हीं और पलकों के कम्पन से
               तबाह कर लेना चाहोगे ख़ुद को?

दूर से आती है या कहीं बहुत पास से
पुरखों के रोने की दिशा से आती है वह
उस नख़्लिस्तान से जिसे रोया है उनके चेहरों ने

उस सुख की आँधी-सी उड़ी आती है वह
जो माँ के सफ़ेद फूलों से हर रोज़ बिखरता है
उसी के नूर में काँपती तुम्हारी आँखों के नीचे
जब बही आएँगीं तितलियाँ पीली आम की वातास में
वह चली जाएगी छोड़कर तुम्हें विस्मृति की धूल में

रोओ, सर पटक कर ज़ार-ज़ार रोओ तुम
गिरा दो अपनी जेबों में काले पड़ते चाँदी के सिक्के
वे छुआरे और मीठे चने बचपन के
जिन्हें बीनते थे तुम शवयात्राओं के बीच से भागते हुए आठ के आकार में

तज दो दारिद्र्य अपना
तज दो ऐश्वर्य भी

उठाओ अपनी भवें शून्य के गलियारे में

नदी से
बहुत दूर

बहुत बहुत
दूर
रेवा के तट से

बहुत बहुत
दूर तुम !!