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क्षमा और संघियों के शंख बजा दूँ / उर्मिल सत्यभूषण

हे रसराज! हे रंगराज!!
तुमने कितनों का संहार किया
कितनों का उद्धार किया
ये सब करते हुये समाज और
संसार द्वारा अथवा दुष्ट कौरवों
द्वारा किया गया अपमान चुपचाप सह गये तुम
गरल पी गये तुम!
युद्ध टलता ही रहे! टलता ही रहे तो
अच्छा
यही सोच-सोच कर
संधि के प्रयत्न बार-बार करते
रहे तुम श्रीकृष्ण
ऐसी ही शक्ति अपनी
मुझमें समोदो प्रभु! कि
संशय के नागों से डसे रिश्तों
पर अनुलेप लगाकर प्रेम का
पाठ पढ़ा दूँ। क्षमा और संधियों
के शंख बजा दूँ, प्रेम और प्रीत
के गीत गा-गा कर स्नेह की
बांसुरी बजा-बजा कर
सारी दुनिया को सराबोर कर दूँ
तुम्हारी भावना के जल में भिगो दूँ।