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खंड-10 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

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वन में वनचर संग में, रहना है आसान।
दुष्ट संग तो स्वर्ग भी, होता नरक समान।।
होता नरक समान, जुड़े न दुष्ट से नाता।
होगा अति उपकार, बचा लें आप विधाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, भले बीमारी तन में।
नहीं मिले जब दुष्ट, रहूँगा सुखमय वन में।।

वैसे हैं बिखरे पड़े, सुन्दर मार्ग विभिन्न।
प्रतिभाशाली छोड़ता, है अपना पदचिह्न।।
है अपना पदचिह्न, नयी वह राह बनाता।
पहुँच उच्च सोपान, वहीं से मार्ग दिखाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, करेगा फिर वह जैसे।
बनता वह दृष्टान्त, लोग सब करते वैसे।।

मुझको दो कुछ भी नहीं, दया करो भगवान।
पूरी हो माँ की दुआ, यह माँगूँ वरदान।।
यह माँगूँ वरदान, पूर्ण हो माँ की इच्छा।
देने को तैयार, कभी लें आप परीक्षा।
कह ‘बाबा’ कविराय, धन्य कह दूँगा तुझको।
हो माता संतुष्ट, नहीं दें कुछ भी मुझको।।

लोभी तो होता नहीं, किसी दान से तुष्ट।
सब प्रयास निष्फल करे, भले मिले धन पुष्ट।।
भले मिले धन पुष्ट, अधिक ही और चाहता।
धनकुबेर भी नित्य, उसी से हार मानता।
कह ‘बाबा’ कविराय, लाख धन उसको हो भी।
कभी नहीं संतुष्ट, रहेगा कोई लोभी।।

क्रोधी को मिलता नहीं, कभी किसी का प्यार।
किसी-किसी के हाथ से, पड़ जाती है मार।।
पड़ जाती है मार, बात हर इक पर बिगड़े।
आदत से लाचार, अकारण सबसे झगड़े।
कह ‘बाबा’ कविराय, मिलेगा अगर विरोधी।
घर बाहर सर्वत्र, लड़ेगा उससे क्रोधी।।

कामी को तो चाहिए, एकमात्र बस काम।
कभी तृप्त होता नहीं, भले रहे बदनाम।।
भले रहे बदनाम, बढ़े जब काम पिपासा।
करता सतत् कुकर्म, उसी की हो जिज्ञासा।
कह ‘बाबा’ कविराय, संग देता बदनामी।
सब हट जाते दूर, जहाँ भी होता कामी।।

अनुभव है शिक्षक वही, जिसका उल्टा काम।
कठिन परीक्षा बाद में, पहले दे परिणाम।।
पहले दे परिणाम, बहुत कुछ पूर्व सिखाता।
कैसे होती जीत, ज्ञान का मार्ग दिखाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, व्यर्थ है धन या वैभव।
हो न सके उपभोग, नहीं जब मिलता अनुभव।।

जिसका उच्च निवास है, मगर नीच करतूत।
दूर रहें उससे सदा, सद्यः वह यमदूत।।
सद्यः वह यमदूत, अनर्गल बात कहेगा।
रह घमंड में चूर, दुष्ट आघात करेगा।
कह ‘बाबा’ कविराय, भरोसा मत कर उसका।
उससे रह परहेज, हृदय हो दूषित जिसका।।

बंधन का कारण बने, कर्त्तापन अभिमान।
कर्म करो जग में मगर,रखकर प्रभु पर ध्यान।।
रखकर प्रभु पर ध्यान, जिसे हो उनसे नाता।
वह होता भव पार, सहित ही प्रभु पद पाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं फिर होगा क्रन्दन।
अनायास प्रभु नाम, छुड़ाए भव का बंधन।।

बनते हैं कुछ कवि यहाँ, आज स्वयं परिहास।
कहते मात्रा गणन बिन, खुद को तुलसीदास।।
खुद को तुलसीदास, समझकर हैं इतराते।
चाटुकार के संग, मंच पर धूम मचाते।
कह ‘बाबा’ कविराय, जीत पर खूब मचलते।
आत्ममुग्ध रह नित्य, स्वयं मुँह मिट्ठू बनते।।