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खंड-15 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

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होते कुछ कवि श्रेष्ठ हैं, कुछ होते कवियाठ।
जम जाते हैं मंच पर, सदा दिखाकर ठाठ।।
सदा दिखाकर ठाठ, अन्य पर धौंस जमाते।
चाटुकार के संग, नोट भी खूब कमाते।
कह ‘बाबा’ कविराय, स्वप्न रंगीन सँजोते।
आ जाता है दंभ, नकलची जो कवि होते।।

जगती है जब कामना, आता है उत्साह।
लक्ष्य साध आगे बढ़ें, रहकर बेपरवाह।।
रहकर बेपरवाह, राह खुद दिखती जाए।
बढ़ते जाएँ आप, मंजिलें निकट बुलाए।
कह ‘बाबा’ कविराय, रात जब ढलने लगती।
आए सुखद प्रभात, भावना सब में जगती।।

पलती है मन में कभी, किसी वस्तु की चाह।
उसको पाने के लिए, जगता तुरत कुभाव।।
जगता तुरत कुभाव, विघ्न से आहत होता।
फिर होता सम्मोह, तुरत विवेक वह खोता।
कह ‘बाबा’ कविराय, क्रोध की आँधी चलती।
करता सत्यानाश, घृणित इच्छा जब पलती।।

उसको जानें संत जो, इच्छा को ले जीत।
रखता है संतोष धन, करे जगत से प्रीत।।
करे जगत से प्रीत, यही है प्रभु की पूजा।
कण-कण में भगवान, नहीं है कोई दूजा।
कह ‘बाबा’ कविराय, मिले वह जब भी जिसको।
दें अतिशय सम्मान, भक्ति से पूजें उसको।।

बनता है सौभाग्य से, अगर कृषक मजदूर।
उसमें बस निर्माण का, पलता भाव जरूर।।
पलता भाव जरूर, सृष्टि का है वह पालक।
भोजन वस्त्र मकान, सभी का है संचालक।
कह ‘बाबा’ कविराय, जोश हरदम है रखता।
होता अगर विकास, श्रमिक निर्णायक बनता।।

होता है मजदूर ही, हम सबका आधार।
वह करता है अन्य के, सपने सब साकार।।
सपने सब साकार, उसी पर विश्व टिका है।
लेता श्रम का मूल्य, नहीं ले दाम बिका है।
कह ‘बाबा’ कविराय, धैर्य रख सपने बोता।
श्रम का चाहे मूल्य, श्रमिक मजबूर न होता।।

सबसे पहले गुरु नमन, जिनसे पाया ज्ञान।
जिनके आशीर्वाद से, आज बना इंसान।।
आज बना इंसान, व्यर्थ था मानव जीवन।
पाकर ही सद्ज्ञान, हुआ है सार्थक यौवन ।
कह ‘बाबा’ कविराय, नीति सीखी है जबसे।
पाकर गुरु आशीष, स्नेह मिलता है सबसे।।

मूल्यांकन खुद का करे, रहता वही प्रसन्न।
अवगुण देखे अन्य का,वह रहता अवसन्न।।
वह रहता अवसन्न, कभी वह चैन न पाता।
ढूँढ़ सभी में दोष, सदा ही अवगुण गाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, अन्य का हो छायांकन।
जीवन होता श्रेष्ठ, करें अपना मूल्यांकन।।

जो रहता है सर्वदा, अहंकार में चूर।
वह सुख भी पाता नहीं, रहे स्वजन से दूर।।
रहे स्वजन से दूर, नहीं हो कोई अपना।
उससे कोसों दूर, रहेगा उसका सपना।
कह ‘बाबा’ कविराय, शास्त्र भी ऐसा कहता।
प्रभु दे निश्चित दंड, दर्प में है जो रहता।।

प्रभुता पाकर जो सदा, करता पूर्ण घमंड।
पढ़ा-लिखा फिर भी उसे, कहते लोग उदंड।।
कहते लोग उदंड, शिष्टता जिसने पाई।
वह पाता सम्मान, शेष हैं दुष्ट कसाई।
कह ‘बाबा’ कविराय, श्रेठता होती लघुता।
जो हो परम विनम्र, बढ़ेगी उसकी प्रभुता।।