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खंड-17 / पढ़ें प्रतिदिन कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

आया मौसम ग्रीष्म का, बढ़ता जाता ताप।
दोष प्रकृति का है नहीं, यह है अपना पाप।।
यह है अपना पाप, उजाड़ें क्यों हम जंगल।
पहले सुधरें आप, चाहते हों यदि मंगल।।
नित्य लगाएँ पेड़, मिलेगी शीतल छाया।
धर कर भीषण रूप, ग्रीष्म का मौसम आया।।

जाना हो यदि जेल या, होना हो बदनाम।
ममता जी के राज्य में, कह दें जय श्रीराम।।
कह दें जय श्रीराम, वहाँ प्रभु नाम मना है।
करवा देती खून, हाथ में रक्त सना है।।
खुद को कह निर्दोष, अन्य पर दोष मढ़ाना।
उसकी है यह चाल, भेद यह सबने जाना।।
  
जिसको है बिल्कुल नहीं, छन्दशास्त्र का ज्ञान।
उटपटाँग लिखकर वही, कहलाता विद्वान।।
कहलाता विद्वान, वही सम्मानित होता।
जो असली विद्वान, बने वह प्रायः श्रोता।।
जिसे न छान्दस ज्ञान, आप क्या कहते उसको?
बिना परख सम्मान, विज्ञ भी देते जिसको?
 
 
वैसे तो त्रैलोक्य ही, प्रभु का है विस्तार।
मैं अरु तुम का भेद ही, देखे यह संसार।
देखे यह संसार, इसी को कहते माया।
ईश्वर का प्रतिरूप, जीव बनकर है आया।।
रखकर अपनी सोच, भाव हो मन के जैसे।
वही बने प्रारब्ध, प्राप्त हो फल भी वैसे।।
 
नश्वर इस संसार में, जीव ब्रह्म का भेद।
सिखलाती माया सदा, मैं तुम का विच्छेद।।
मैं तुम का विच्छेद, यही बन्धन दिलवाता।
इतर योनि में जन्म, कर्म निर्घिन करवाता।।
चिर शाश्वत हैं एक, जिसे कहते परमेश्वर।
जगत सहित त्रैलोक्य, दृष्टिगत सब हैं नश्वर।।
 
जलती बाती की तरह, बीत रही है रैन।
प्रियतम आये ही नहीं, मन है अति बेचैन।।
मन है अति बेचैन, किसे वह दर्द सुनाए।
विरह व्यथा की आग, कहाँ अबआज बुझाए।।
उसकी अन्तिम साँस, आस लेकर है चलती।
तिल-तिल कर ले तेल, प्रेम की बाती जलती।।
 
करते हैं सब वन्दना, परम पूज्य ज्यों धाम।
वल्लभ थे वे जानकी, शास्त्री था उपनाम।।
शास्त्री था उपनाम, छन्द के थे रखवाले।
कालजयी साहित्य, उन्होंने हैं रच डाले।।
उनके अनुपम ग्रन्थ, विज्ञजन जब हैं पढ़ते।
श्रद्धा से सम्मान, आज भी सब हैं करते।।
 
महिमा उनकी क्या कहूँ, शब्द सभी लाचार।
मैं उनको बस मानता, साहित्यिक अवतार।।
साहित्यिक अवतार, भरी थी प्रबल विद्वता।
रहकर अति सामान्य, सिखायी पूर्ण शिष्टता।।
वाणी में था ओज, शब्द में होती गरिमा।
गाता है साहित्य, नित्य ही उनकी महिमा।।
 
जीते थे वे देह में, पर थे एक विदेह।
अनासक्त थे जगत से, पर था सबसे स्नेह।।
पर था सबसे स्नेह, प्रेम ही सबको देते।
मानव हो या गाय, सभी की वे सुधि लेते।।
भौतिक सुख को त्याग, गरल ही प्रतिपल पीते।
स्वाभिमान के साथ, रहे जीवन भर जीते।।
 
कहता है यह पूर्णियाँ, कर मेरी परवाह।
शीघ्र बनाएँ आप सब, गृह विद्युत शवदाह।।
गृह विद्युत शवदाह, आज है बहुत जरूरी।
नगर निगम का क्षेत्र, रहेगी प्रगति अधूरी।।
अर्द्ध जला शव नित्य, नदी सौरा में बहता।
सोयी है सरकार, नहीं कोई है कहता।।