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खंड-19 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

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देने गीता ज्ञान थे, अर्जुन मात्र निमित्त।
उसे पढ़ें भगवान में, लग जाएगा चित्त।।
लग जाएगा चित्त, पार्थ थे मात्र बहाना।
लुप्तप्राय जो ज्ञान, उसे था लक्ष्य सुनाना।
कह ‘बाबा’ कविराय, ज्ञान है सबको लेने।
चाह रहे थे कृष्ण, जगत को गीता देने।।

लिखता हूँ प्रत्येक दिन, दोहे मित्र अनेक।
लाखों पढ़ते हैं मगर, सुधरेंगे कुछ एक।।
सुधरेंगे कुछ एक, परिश्रम होगा पूरा।
नहीं सुधरते लोग, समझ लें काव्य अधूरा।
कह ‘बाबा’ कविराय, जगत में जो कुछ दिखता।
उसे बनाकर छंद, हमेशा हूँ मैं लिखता।।

उसने मुझको मारने, फेंक दिया मझधार।
उससे सीखा तैरना, अब मैं हूँ उस पार।।
अब मैं हूँ उस पार, हमेशा ठोकर खायी।
उससे लेकर सीख, बुद्धि की दौलत पायी।
कह ‘बाबा’ कविराय, घृणा ही दी है जिसने।
मानूँ मैं आभार, भलाई की है उसने।।

सत्ता की लालच करे, मानवता का नाश।
राजनीति को मैं कहूँ, बदबू देती लाश।।
बदबू देती लाश, करें मत उससे आशा।
वह है टेढ़ी खीर, मिलेगी मात्र निराशा।
कह ‘बाबा’ कविराय, रहे दिल्ली कलकत्ता।
उसको रहती भूख, चाहता हरदम सत्ता।।

नेता कुछ है बोलता, करता है कुछ और।
शुचिता का क्या अर्थ है, करते रहिए गौर।।
करते रहिए गौर, सदा षड्यंत्र रचाता।
वादे कर रंगीन, गगन में पुष्प दिखाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, मात्र वह भाषण देता।
सत्ता से आसक्त, रहेगा हरदम नेता।।

जिसको भी लगता कभी, राजनीति का रोग।
चाह करे गद्दी मिले, और मिले सब भोग।।
और मिले सब भोग, करे हरदम गद्दारी।
करता मीठी बात, भरी रहती मक्कारी।
कह ‘बाबा’ कविराय, स्वार्थ ही सूझे उसको।
खो देता विश्वास, रोग यह लगता जिसको।।

होता मात्र शरीर ही, सबका निज आवास।
स्वस्थ देह संभव करे, पूर्ण अपेक्षित आस।।
पूर्ण अपेक्षित आस, स्वाथ्य ही उत्तम धन है।
उसमें करता वास, सदा ही सुन्दर मन है।
कह ‘बाबा’ कविराय, स्वाथ्य जब कोई खोता।
बन जाता कंगाल, दुखी जीवन में होता।।

अनगिन वीरों से भरी, भारत माँ की गोद।
आतंकी का वध करें, छिपे कब्र से खोद।।
छिपे कब्र से खोद, नहीं आतंक सहेंगे।
एक-एक को खोज, मूल से नष्ट करेंगे।
कह ‘बाबा’ कविराय, करेंगे वध अब गिनगिन।
हमसब हैं तैयार, वीर भारत के अनगिन।।

आते हैं सब साथ ले, प्रभु की लिखी लकीर।
रंग भरें हम जिस तरह, वैसी हो तस्वीर।।
वैसी हो तस्वीर, रूप हम भर दें जैसा।
उभरेगा जो चित्र, दिखेगा बिल्कुल वैसा।।
कह ‘बाबा’ कविराय, अंक हम प्रभु से पाते।
खाली भाग्य-लकीर, लिखाकर हम हैं आते।।

चलती है लू जोर से, दग्ध हृदय अरु गात।
व्याकुल मन कैसे करे, अभी प्रेम की बात।।
अभी प्रेम की बात, मिले कैसे शीतलता।
त्राहि-त्राहि सब जीव, बढ़ी अतिशय व्याकुलता।
कह ‘बाबा’ कविराय, घृणा ही मन में पलती।
वैज्ञानिक हैरान, हवा क्यों ऐसी चलती।।