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खंड-1 / पढ़ें प्रतिदिन कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

सिद्धि विनायक आप हैं, श्री गणेश गणनाथ।
दें मेरे इस माथ पर, निज वरदायी हाथ।।
निज वरदायी हाथ, नित्य मैं करता वन्दन।
देते हैं हर सिद्धि, मुदित हो गिरिजानन्दन।।
कहता है त्रैलोक्य, आपको ही गणनायक।
प्रथम पूज्य हैं आप, नमन हे सिद्धि विनायक।।
 
 मेरा संशय मिट सके, दूर रहे अज्ञान।
 सरस्वती की हो कृपा, मिल जाए वरदान।।
मिल जाए वरदान, जगत को अपना मानूँ।
करूँ सदा सत्कर्म, सुलभ हो जो भी ठानूँ।
कह “बाबा” कविराय, जगत है रैन बसेरा।
सबमें बाँटो प्रेम, नहीं कुछ तेरा मेरा।।
 
माता वीणावादिनी, मुझ पर दें कुछ ध्यान।
स्वच्छ बने कलुषित हृदय, मिट जाए अज्ञान।।
मिट जाए अज्ञान, सफल मानव बन पा।
बाँटूँ सबके दर्द, प्रशंसा सुन . न अघा।
कह “बाबा” कविराय, आप बिन जगत न भाता।
बन जा मैं श्रेष्ठ, यही वर दे दें माता।।
 
 जब-जब मैंने हृदय से, लिया आपका नाम।
चल पड़ती है लेखनी, अविरल गति अविराम।।
अविरल गति अविराम, हृदय में भाव जगाकर।
 हट जाता अज्ञान, कलुषता त्वरित मिटाकर।
कह “बाबा” कविराय, बने पद सुन्दर तब-तब।
सरस्वती का नाम, लिया है मैंने जब-जब।।
 
 ऐसा क्या संभव नहीं, जो ले तेरा नाम।
सरस्वती तुम धन्य हो, बन जाते सब काम।।
बन जाते सब काम, कोश तेरा अक्षय है।
बाँटूँ तो बढ़ जाय, नहीं घटने का भय है।
कह “बाबा” कविराय, कहो है अद्भुत कैसा।
जन्म-जन्म तक संग, चले है कोई ऐसा।।
 
सबसे पहले गुरु नमन, जिनसे पाया ज्ञान।
जिनके आशीर्वाद से, आज बना इंसान।।
आज बना इंसान, व्यर्थ था मानव जीवन।
पाकर ही सद्ज्ञान, हुआ है सार्थक यौवन।
कह”बाबा”कविराय, नीति सीखी है जबसे।
पाकर गुरु आशीष, स्नेह मिलता है सबसे।।
 
जिनसे सीखा है कभी, एक वर्ण का ज्ञान।
रह कृतज्ञ मैं मानता, उनको ब्रह्म समान।।
उनको ब्रह्म समान, समझ मैं आदर करता।
पाकर अक्षर ब्रह्म, निडर हो नित्य विचरता।
कह “बाबा”कविराय, बहुत कुछ सीखा उनसे।
दिल से देता मान, बना हूँ साक्षर जिनसे।।

सबको करना चाहिए, गुरुजन का सम्मान।
मैं तो गुरु को मानता, सद्यः ब्रह्म समान।।
सद्यः ब्रह्म समान, ज्ञान जिनसे हम पाते।
पा उनका आशीष, छन्द उत्कृष्ट बनाते।।
गुरु के प्रति सद्भाव, प्राप्त होता है रब को।
परम पूज्य गुरुदेव, ज्ञान देते हैं सबको।।

होता जब पूरा नहीं, करें साधना स्वल्प।
फिर तो नित अभ्यास से, मिलते नित्य विकल्प।।
मिलते नित्य विकल्प, साधना हो नित जारी।
सीखें गूढ़ रहस्य, विज्ञ से रखकर यारी।।
लग पाता जब नित्य, ज्ञान सागर में गोता।
उस साधक से बोल, नहीं क्या संभव होता।।

मिलती जब अध्यक्षता, हो जाता हूँ धन्य।
मैं तो चाहूँ सीखना, विद्वानों से अन्य।।
विद्वानों से अन्य, बाँटते ज्ञान सुधा जो।
हर लेते अज्ञान, तृप्त कर ज्ञान-क्षुधा को।।
कह “बाबा” कविराय, काव्य की कलिका खिलती।
करते रहते दान, यहाँ बस विद्या मिलती।।