भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खंड-9 / पढ़ें प्रतिदिन कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाल्यावस्था से हुई, तुकबन्दी प्रारम्भ।
लिख लेता हर छन्द अब, करूँ नहीं मैं दम्भ।।
करूँ नहीं मैं दम्भ, शारदा है लिखवाती।
मैं रहता निष्काम, वही सबकुछ करवाती।।
रहकर मात्र निमित्त, एक उनपर है आस्था।
लेखन करता नित्य, याद है बाल्यावस्था।।
 
राधा रानी व्यग्र थीं, कृष्ण गये थे दूर।
मोरपंख पाकर हुई, आनन्दित भरपूर।।
आनन्दित भरपूर, कृष्ण अब निकट मिलेंगे।
फिर होगा सान्निध्य, मिलन के पुष्प खिलेंगे।।
लिखनी है पुनि आज, प्रेम की अमर कहानी।
होकर भाव विभोर, सोचती राधा रानी।।

बैठी तितली पुष्प पर, चूसे नित्य पराग।
सदुपयोग ऐश्वर्य का, करती है बड़भाग।।
करती है बड़भाग, अन्यथा वह झड़ जाता।
धन भी बिन उपयोग, बाद में है सड़ जाता।।
पाकर यौवन भार, नायिका रहती ऐंठी।
अहंकार में चूर, रहे जीवन भर बैठी।।
 
जो रखता इस जगत में, कर्त्तापन अभिमान।
पाप-पुण्य का फल सदा, उसको दे भगवान।।
उसको दे भगवान, वही है सुख-दुख पाता।
सदा कर्म अनुरूप, योनियों में वह जाता।
कह”बाबा”कविराय, नहीं फिर वह है फँसता।
त्याग सकल अभिमान, समर्पण है जो रखता।।
खायीं जितनी ठोकरें, उन सब में कुछ छाँट।
देना चाहूँ पटल पर, अपने अनुभव बाँट।।
अपने अनुभव बाँट, सजाए थे जो सपने।
मिलकर दिए उजाड़, लोग हैं सारे अपने।।
मुझको असफल देख, उन्हें कुछ लाज न आयी।
दूँ मैं किसको दोष, ठोकरें ही बस खायीं।

मगसम से मुझको मिला, शतकवीर सम्मान।
इसको तो मैं मानता, माता का वरदान।।
माता का वरदान, अन्यथा मैं अनजाना।
लिख पाता जो काव्य, अनुग्रह उनका माना।।
मैं हूँ मात्र निमित्त, समर्पित रहता हरदम।
दिया मुझे सम्मान, धन्य है अपना मगसम।।

आओ ले लो चूड़ियाँ, मनपसन्द हैं रंग।
सुनकर दौड़ी नारियाँ, लेकर हृदय उमंग।।
लेकर हृदय उमंग, पहनकर हैं हरषाती।
अचल रहे अहिबात, यही वर सबसे पाती।।
करे परस्पर बात, गयी जो छूट बुलाओ।
लगा रही आवाज, निकल सब घर से आओ।।
 
जाता हो जब साल तो, करें नहीं संदेह।
साल बदलता है सदा, नहीं बदलता स्नेह।
नहीं बदलता स्नेह, इसे फिर और बढ़ाएँ।
नया-नया भी मित्र, नित्य ही आप बनाएँ।।
जो रखता सद्भाव, वही सबकुछ है पाता।
होता है क्रमबद्ध, साल भी आता जाता।।
 
आगत इस उन्नीस का, क्या मैं करूँ बखान।
सब अतीत को भूल यह, लाया है मुस्कान।।
लाया है मुस्कान, हर्ष पाकर हूँ गर्वित।
भेदभाव को भूल, प्रेम को वर्ष समर्पित।।
जग का हो उत्थान, भाव यह रख हो स्वागत।
देता मैं सम्मान, देव सा पूजित आगत।।

रखता जो परिवार में, सदा आपसी मेल।
हालत हो विपरीत भी, उसे समझता खेल।।
उसे समझता खेल, खुशी भी एक कला है।
जो जाने तरकीब, उसी का सतत भला है।।
रखकर सुख की चाह, सदा आनन्दित रहता।
बदलेगा परिवेश, धैर्य जो मन में रखता।।
 
होता है हरगिज नहीं, आपद से भयभीत।
धैर्यवान सब झेलता, देख हाल विपरीत।।
देख हाल विपरीत, धैर्य रख वह मुस्काता।
आनन्दित परिवार, सहज रह अति सुख पाता।।
मूलमन्त्र यह जान, नहीं वह दुख में रोता।
पति-पत्नी में मेल, भाग्य से संभव होता।।