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खंड-9 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

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उनके हाथों क्या कभी,विकसित होगा राष्ट्र?
पुत्र मोह में हैं पड़े, आज कई धृतराष्ट्र।।
आज कई धृतराष्ट, मोह में बनकर अंधा।
करे कई षडयंत्र, चले बस अपना धंधा।
कह ‘बाबा’ कविराय, हाथ में सत्ता जिनके।
चाहे उनके बाद, पुत्र संभाले उनके।।

पोखर बन सागर नहीं, जहाँ बुझेगी प्यास।
शेर सदा गर्दन झुका, प्यासा आए पास।।
प्यासा आए पास, सभी गाएँगे महिमा।
सब करते हों याद, व्यक्ति की बढ़ती गरिमा।
कह ‘बाबा’ कविराय, जियो तो सबका होकर।
करते लोग तलाश, बनो तुम ऐसा पोखर।।

शंकर बन मैंने दिया, जिसको भी वरदान।
भस्मासुर बन ले रहा, वह मेरी ही जान।।
वह मेरी ही जान, हमेशा धोखा खाया।
करके पर उपकार, सदा ही उल्टा पाया।
कह ‘बाबा’ कविराय, बने वह दैत्य भयंकर।
दौड़े मेरी ओर, बचा लें मुझको शंकर।।

धन की गति बस तीन है, दान भोग या नाश।
सदुपयोग जब हो नहीं, हरण करे बदमाश।।
हरण करे बदमाश, अगर प्रभु हैं धन देते।
हुआ नहीं उपयोग, किसी विधि वे हर लेते।
कह ‘बाबा’ कविराय, अधोगति ज्यों हो तन की।
करें नित्य कुछ दान, नहीं तो दुर्गति धन की।।

डाली से टूटा हुआ, क्या जुटता फिर फूल?
अपनों से व्यवहार में, कभी करें मत भूल।।
कभी करें मत भूल, रखें सम्बन्ध बचाकर।
कर दें थोड़ा त्याग, हृदय के कष्ट भुलाकर।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं चाहेगा माली।
उसको होता कष्ट, पुष्प बिन जब हो डाली।।

सावन सूखा रह रहा, नहीं बरसता नीर।
कृपा करेंगे इन्द्र अब, मत हों अधिक अधीर।।
मत हों अधिक अधीर, नियति का चक्र यही है।
जो करते भगवान, उन्हीं की बात सही है।
कह ‘बाबा’ कविराय, मास बन पाए पावन।
कृषक बने खुशहाल, अगर बरसेगा सावन।।

इससे मैं संतुष्ट हूँ, जितना है उपलब्ध।
सुख-दुख को मैं मानता, एकमात्र प्रारब्ध।।
एकमात्र प्रारब्ध, किसी का दोष नहीं है।
जो करता संताप, उसे संतोष नहीं है।
कह ‘बाबा’ कविराय, बच न पाऊँ सुख-दुख से।
फिर घबड़ाना व्यर्थ, रहूँ प्रसन्न फिर इससे।।

होता है हर व्यक्ति ही, अपनेआप महान।
हो सकता है हम उसे, नहीं सके पहचान।।
नहीं सके पहचान, उसे दें थोड़ा मौका।
मिले अगर मैदान, लगा दे छक्का चौका।
कह ‘बाबा’ कविराय, दिखे जो कोई सोता।
गुदड़ी में भी लाल, हमेशा छिपकर होता।।

पानी मेरी उम्र का, पहुँचा खतरा पार।
उसपर वर्षा वक्त की, बरसे मूसलधार।।
बरसे मूसलधार, कभी भी मैं बह जाऊँ।
हूँ माया से दूर, नहीं प्रभु से कह पाऊँ।
कह ‘बाबा’ कविराय, करूँअब भी मनमानी।
फिर होना है नाश, नहीं उतरेगा पानी।।

जितनी प्रतिभा शेष है, प्रभु पर रख विश्वास।
सृजन करूँ साहित्य का, जबतक अंतिम साँस।।
जबतक अंतिम साँस, नित्य रचना कर पाऊँ।
विविध छंद में पद्य, बनाकर रोज सुनाऊँ।
कह ‘बाबा’ कविराय, यही चाहत है अपनी।
रचनाएँ हों श्रेष्ठ, अभी लिख पाऊँ जितनी।।