http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%96%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8B_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82_%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%AA%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A4%B0_/_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%B6_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B9&feed=atom&action=historyखजुराहो में मूर्तियों के पयोधर / दिनेश कुशवाह - अवतरण इतिहास2024-03-28T21:20:27Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%96%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8B_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82_%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%AA%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A4%B0_/_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%B6_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B9&diff=128688&oldid=prevShrddha: नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश कुशवाह |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> पत्थरों में कच…2011-09-16T16:26:26Z<p>नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश कुशवाह |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> पत्थरों में कच…</p>
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<poem><br />
पत्थरों में कचनार के फूल खिले हैं <br />
इनकी तरफ़ देखते ही आँखों में <br />
रंग छा जाते हैं<br />
मानों ये चंचल नैन<br />
इन्हें जनमों से जानते थे। <br />
<br />
मानो हृदय ही फूला फला है <br />
अपनी सारी उदारता के साथ<br />
काया के ऊपर<br />
डाल पर पके बेल की आभा और गंध लेकर<br />
<br />
एक मद्धम सुनहरी आँच<br />
फूटती है इनके चतुर्दिक<br />
जैसे भोर के सुरमई संसार में <br />
दिन निकलने से ठीक पहले<br />
दिखता है लालटेन का प्रकाश वृत।<br />
<br />
सम्मोहन से सुचिक्कन ये कांति के कोहिनूर<br />
दिप रहे हैं हज़ार वर्षों से <br />
ताम्बई दीपाधारों पर फूट पड़ने को तत्पर<br />
प्रथम सद्यःप्रसूता के स्तनों जैसे <br />
उन्नत-उज्ज्वल और वर्तुल।<br />
<br />
मनुष्य का सबसे मुलायम अनुभव<br />
छेनी और हथौड़ियों से तराशा गया है <br />
जैसे बलखाती नदी का जल<br />
हौले-हौले गढ़ता है शालिग्राम<br />
कलेजे से लगाकर शिलाखंड।<br />
<br />
कलाकार हाथों ने पत्थरों में जड़ दिये हैं<br />
नवनीत के बड़े-बड़े लोने<br />
कि वे सदा वैसे ही बने रहें<br />
न ढलें, न गलें<br />
प्रगाढ़ आलिंगनों से अक्षत<br />
इतने उदग्र ऐसे उद्धत<br />
जैसे संसार भर में बननेवाली रंग-बिरंगी चोलियाँ<br />
पाँव पोंछने के लिए हों । <br />
<br />
इन्हें देखकर मन करता है <br />
कहीं से कटोरा-भर केसर घोल लाऊँ<br />
और धीरे धीरे करूँ इन पर लेप<br />
जैसे ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया जाता है <br />
मनुहार कर किसी को ले चलूँ अपने संग<br />
खूब आदर-सत्कार करूँ और पूछूँ<br />
इन मंगलघटों में बसे<br />
मनुष्य के प्राणों का रहस्य।<br />
<br />
जिन दिनों आधी आधी रात तक<br />
चलती है पुरवाई<br />
अमराइयों में अलसाई कोयल<br />
बोलती है कुहु कुहु<br />
नारंगी का यह मदन-रस-माता बाग<br />
अपनी आती-जाती हर सांस के साथ डोलता है।<br />
<br />
मौसम की पहली बारिश के बाद <br />
तत्क्षण जब निकलती है धूप<br />
घटा और घाम में एक साथ नहाये <br />
वक्षों से उठते हैं वाष्प के फाहे<br />
माघ की सुबह मुँह से निकली भाप की तरह<br />
जैसे किसी सद्यःस्नाता की देह से <br />
उठती हो निःशब्द कामनाओं की लौ । <br />
<br />
एक सखी दूसरी से कहती है <br />
सखी! अपने ये फूल देख रही हो <br />
नंदन वन का पारिजात भी<br />
इनके आगे कुछ नहीं है <br />
जब तुम कुएं में पानी भरने जाओगी <br />
तो धरती के ये फूलगंेदे<br />
पाताल तक महकेंगे। <br />
<br />
इस पर्वत उपत्यका में कभी<br />
मृगछौने के पीछे दौड़कर देखो<br />
ललछौंही आँखों वाले ये खरगोश<br />
अपनी जगह उछल-कूद की<br />
कैसी प्रीतिकर युगलबंदी करते हैं।<br />
<br />
सजते सँवरते समय ये किसी व्याकुल छैला की तरह<br />
उचक-उचककर आईने में झाँकते हैं<br />
तब मन करता है प्रिय की पठायी मुंदरी की तरह<br />
इन्हें हाथ में लेकर हियरा भर देखूँ।<br />
<br />
गोमुख से निकली गंगा की तरह <br />
कंचनजंघा के इन सुनहरे शिखरों से भी <br />
फूटती है एक गंगोत्री जिससे यह सारी धरती<br />
दूधो नहा और पूतों फल रही है ।</poem></div>Shrddha