भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खड़े जहाँ पर ठूँठ / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खड़े जहाँ पर ठूँठ
कभी यहाँ
पेड़ हुआ करते थे।
सूखी तपती
इस घाटी में कभी
झरने झरते थे ।
छाया के
बैरी थे लाखों
लम्पट ठेकेदार ,
मिली-भगत सब
लील गई थी
नदियाँ पानीदार ।
अब है सूखी झील
कभी यहाँ
पनडुब्बा तिरते थे ।
बदल गए हैं
मौसम सारे
खा-खा करके मार
धूल -बवण्डर
सिर पर ढोकर
हवा हुई बदकार
सूखे कुएँ ,
 बावड़ी सूखी
जहाँ पानी भरते थे ।