भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खण्ड-15 / यहाँ कौन भयभीत है / दीनानाथ सुमित्र

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:11, 19 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दीनानाथ सुमित्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

281
देश-चेतना शून्य है, लगे फूल भी शूल।
आम काट कर फेंकता, रोपा करे बबूल।।

282
नर नारी के मध्य में, हो मधुमय सम्बंध।
प्रेमाधारित हो अगर, क्यों टूटे अनुबंध।।

283
मन छोटा था भर गया, गर होता आकाश।
अल्प अवधि में इस तरह, प्रेम न होता नाश।।

284
जीना सालों-साल तक, क्या दे सकता लाभ।
जीना उसका है भला, जिसका यश अमिताभ।।

285
काम बनाने के लिए, करते मीठी बात।
काम हुआ तो कर रहे, लाठी की बरसात।।

286
सीख न पाया देश यह, करना जन-जयकार।
इसीलिए तो आज तक, मिली हार पर हार।।

287
सुंदरता से है भरा, यह सारा संसार।
सबसे सुंदर सिर्फ है, इक माता का प्यार।।

288
कोयल कूके बाग में, फल-फूलों के संग।
भँवरा उड़ता संग में, बजा रहा मिरदंग।।

289
हर चुनाव में देश की, जनता जाती हार।
पौ बारह है सेठ का, माल रहा है मार।।

290
तीस साल की बेटियाँ, हुआ न अब तक ब्याह।
फाँसी लटकेगी कभी, कौन भरेगा आह।।

291
हलका-फुलका हूँ मगर, क्यों लगता हूँ भार।
कुछ ही दिन की बात है, जाना है उस पार।।

292
चाहूँ पर होता नहीं, इच्छाओं का अंत।
बोलो फिर कैसे कहूँ, ‘मैं हूँ साधक-संत’।।

293
बहुत मिला पर कम मिला, मिला नहीं संतोष।
शिशिर काल की भोर के, हरी दूब पर ओस।।

294
ओला, सूखा, बाढ़ से, लड़ता रहा किसान।
उसकी खातिर हर तरफ, जीवन का तूफान।।

295
लोग समझते क्यों नहीं, जीवन के दिन चार।
सबसे अच्छा राखिये, यह अपना व्यवहार।।

296
पढ़ा-लिखा भी मूढ़-सा, करता है व्यवहार।
इसीलिए तो तमस में, है सारा संसार।।

297
वातायन के रास्ते, आते रहे कपोत।
मेरे घर में है मिला, उन्हें प्रेम का स्रोत।।

298
यह विकास का बाग है, यहाँ न कुछ भी झूठ।
प्यारे-प्यारे फूल हैं, यहाँ न कोई ठूँठ।।

299
गिनती करना है कठिन, कितने मेरे मीत।
यह भी कहना है कठिन, कितने मेरे गीत।।

300
गुरु बिन रहा अनाथ मैं, अब गुरु मेरे साथ।
सदा दिखाते हैं जगत, पकड़े मेरा हाथ।