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खत / रामस्वरूप किसान

म्हैं राजी-खुशी हूं
म्हारा बाबा सा!

ओ खत तो म्हैं
एक जरूरी काम सारू लिखूं।

स्यात याद हुसी थानै
घर छोड़ती वेळा थारी पोळां में
बेजां आखड़ी ही म्हैं
अर ठाह नीं
लुगाइयां रै उण
झूलरै नै चीरता
थांरा दोनूं हाथ
म्हारै तांईं कीकर पूग्या।

हां, बाबासा!
बै थारा ई हाथ हा
कुण बेटी नीं पिछाण सकै
बाप रा हाथ
म्हैं ओळख लिया हा
थांरा बै हाथ
जका आखै घर नै
पडऩै सूं बचावता-बचावता
इत्ता निजोरा हुग्या हा
कै धूजता-धूजता
म्हारै तांईं पूग्या।

ऊपर री ऊपर
सा'म लीवी ही
बां खुरदरै हाथां म्हनैं

थांरै हाथां री धूजणी रो परस
बूकियां रै गेलै म्हारै काळजै पूग'र
तिवाळा खावतै थांरै सूक्योड़ै डील रो
पड़बिम्ब अजे ई बणावै
म्हारा बाबा सा!

स्यात थे नीं सोच्यो हुसी
थांरी पोळ में क्यूं आखड़ी ही म्हैं?
हां, क्यूं आखड़ी ही म्हैं??

म्हैं आंधी ही बाबा,
थांरी पोळ छोड़ती वेळा
साव आंधी ही।

जद म्हैं विदाई सारू
त्यार करीजै ही
म्हारी आंख्यां
म्हारै डील सूं
अळगी होय'र
थांरै पथरायोड़ै चै'रै पर
चिपगी ही बाबा!

जे फोरो हुवै तो
म्हारी आंख बेगा पुगावज्यो जामी!
म्हैं अठै जद-जद आखड़ूं
म्हारी सासू ललकारै
आंधी है के?