भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खरपत मारे / विजेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छोड़ सरग तुम धरती आओ
रूप
रंग
रस अनुपम पाओ
अपना करम अटल है भाया
खत जो खोया फिर न पाया ।

मानुख चले
तो धरती डोले
सबद अरथ सम
क्रिया बोले ।
जीने की इच्छा प्रबल है
लिखता काल सिहा पटल है ।

बेल की पूँछ
मरोड़ हकारे
अपने बल ही
करपत मारे ।
बीजा फूटल
कल्ला ऊगा
कहता हूँ
पत्थर मूँगा ।